Bihari Ke Dohe In Hindi : बिहारी लाल के प्रसिद्ध दोहें अर्थसहित :


Bihari Ke Dohe In Hindi : बिहारी लाल के प्रसिद्ध दोहें अर्थसहित :


बिहारी लाल हिंदी साहित्य के प्रमुख कवि के रूप में जाने जाते है । अपने काव्यगत रचना के कारण वे जगत में विख्यात है । उनके दोहे के बारे में कहा जाता है कि ‘सतसैया के दोहरे ज्यों नाविक के तीर ,देखन में छोटन लगे घाव करे गम्भीर ।’ अर्थात उनके दोहे देखने में छोटे लगते है । लेकिन उसमे कई ह्रदयस्पर्शी संदेश छिपे होते है । अपने दोहे में श्रंगारिक उपमा का रंग भरकर वे उसे जीवन्त बना देते है । उन्होंने राधा -कृष्ण के श्रद्धा और प्रेम को जनमानस तक पहुँचाया । इसीलिए आज भी उनके दोहे लोकप्रिय है ।

जीवन परिचय : बिहारी का जन्म ग्वालियर के माथुर चौबे वंश में 1595 र्इ. के हुआ था। उनके पिता का नाम केशवराय था। बिहारी का विवाह भी मथुरा के माथुर चौबे घराने में हुआ था। विवाह के बाद बिहारी अपनी ससुराल में रहने लगे। 1618 में नरहरिदास के यहाँ बिहारी का परिचय शाहजहाँ बादशाह से हुआ । वह बादशाह के साथ आगरा चले गये और वहीं रहने लगे। बादशाह के यहाँ बिहारी का परिचय राजस्थान के राजाओं से हुआ । 1635 र्इ. में बिहारी आमेर-नरेश जयसिंह से मिलने गये। बिहारी की प्रतिभा से प्रभावित होकर जयसिंह ने उन्हें अपने दरबार में रख लिया। वहाँ बिहारी ने 713 दोहों वाली सतसर्इ की रचना की। उस समय उन्हें प्रत्येक दोहे पर एक अशर्फी इनाम में मिलती थी। 1664 र्इ. में उनका निधन हो गया ।
बिहारी लाल के प्रसिद्ध दोहें :
1.
सोहत ओढ़ैं पीतु पटु स्याम, सलौनैं गात ।
मनौ नीलमनि सैल पर आतपु परयौ प्रभात॥
अर्थ : इस दोहे में कवि ने कृष्ण के साँवले शरीर की सुंदरता का वर्णन किया है। कवि का कहना है कि कृष्ण के साँवले शरीर पर पीला वस्त्र ऐसी शोभा दे रहा है, जैसे नीलमणि पहाड़ पर सुबह की सूरज की किरणें पड़ रही हैं ।
2.
कहलाने एकत बसत अहि मयूर, मृग बाघ।
जगतु तपोवन सौ कियौ दीरघ दाघ निदाघ।।
अर्थ : इस दोहे में कवि ने भरी दोपहरी से बेहाल जंगली जानवरों की हालत का चित्रण किया है। भीषण गर्मी से बेहाल जानवर एक ही स्थान पर बैठे हैं। मोर और सांप एक साथ बैठे हैं। हिरण और बाघ एक साथ बैठे हैं। कवि को लगता है कि गर्मी के कारण जंगल किसी तपोवन की तरह हो गया है। जैसे तपोवन में विभिन्न इंसान आपसी द्वेषों को भुलाकर एक साथ बैठते हैं, उसी तरह गर्मी से बेहाल ये पशु भी आपसी द्वेषों को भुलाकर एक साथ बैठे हैं।
3.
बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ।
सौंह करैं भौंहनु हँसै, दैन कहैं नटि जाइ॥
अर्थ :इस दोहे में कवि ने गोपियों द्वारा कृष्ण की बाँसुरी चुराए जाने का वर्णन किया है। गोपियों ने कृष्ण की मुरली इसलिए छुपा दीै । ताकि इसी बहाने उन्हें कृष्ण से बातें करने का मौका मिल जाए । साथ में गोपियाँ कृष्ण के सामने नखरे भी दिखा रही हैं। वे अपनी भौहों से तो कसमे खा रही हैं । लेकिन उनके मुँह से ना ही निकलता है।



4.
बैठि रही अति सघन बन, पैठि सदन तन माँह।
देखि दुपहरी जेठ की छाँहौं चाहति छाँह॥
अर्थ :इस दोहे में कवि ने जेठ महीने की गर्मी का चित्रण किया है। जेठ की गरमी इतनी तेज होती है कि छाया भी छाँह ढ़ूँढ़ने लगती है। ऐसी गर्मी में छाया भी कहीं नजर नहीं आती। वह या तो कहीं घने जंगल में बैठी होती है या फिर किसी घर के अंदर है ।


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5.
कागद पर लिखत न बनत, कहत सँदेसु लजात।
कहिहै सबु तेरौ हियौ, मेरे हिय की बात॥
अर्थ :इस दोहे में कवि ने उस नायिका की मन:स्थिति का चित्रण किया है ।जो अपने प्रेमी के लिए संदेश भेजना चाहती है। नायिका को इतना लम्बा संदेश भेजना है कि वह कागज पर समा नहीं पाएगा। लेकिन अपने संदेशवाहक के सामने उसे वह सब कहने में शर्म भी आ रही है। नायिका संदेशवाहक से कहती है कि तुम मेरे अत्यंत करीबी हो इसलिए अपने दिल से तुम मेरे दिल की बात कह देना।
6.
प्रगट भए द्विजराज कुल, सुबस बसे ब्रज आइ।
मेरे हरौ कलेस सब, केसव केसवराइ॥
अर्थ :कवि का कहना है कि श्रीकृष्ण ने स्वयं ही ब्रज में चंद्रवंश में जन्म लिया अर्थात अवतार लिया था। बिहारी के पिता का नाम केसवराय था। इसलिए वे कहते हैं कि हे कृष्ण आप तो मेरे पिता समान हैं इसलिए मेरे सारे कष्ट को दूर कीजिए ।
7.
जपमाला, छापैं, तिलक सरै न एकौ कामु।
मन काँचै नाचै बृथा, साँचै राँचै रामु॥
अर्थ :आडम्बर और ढ़ोंग किसी काम के नहीं होते हैं। मन तो काँच की तरह क्षण भंगुर होता है । जो व्यर्थ में ही नाचता रहता है। माला जपने से, माथे पर तिलक लगाने से या हजार बार राम राम लिखने से कुछ नहीं होता है। इन सबके बदले यदि सच्चे मन से प्रभु की आराधना की जाए तो वह ज्यादा सार्थक होता है।
8.
नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल ।
अली कली में ही बिन्ध्यो आगे कौन हवाल ।।
अर्थ : न ही इस काल मे फूल में पराग है ,न तो मीठी मधु ही है ।अगर अभी भौरा फूल की कली में ही खोया रहेगा तो आगे न जाने क्या होगा ।राजा जयसिंह अपने विवाह के बाद रास क्रीड़ा में अपना पूरा समय व्यतीत करने लगे थे । उनका अपने राज्य की तरफ से ध्यान हट गया था, तब बिहारी लाल जी ने यह दोहा सुनाया । इससे राजा फिर से अपने राज्य को ठीक प्रकार से देखने लगे ।
9.
मोर मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल ।
यहि बानिक मो मन बसौ सदा बिहारीलाल।।
अर्थ : बिहारी अपने इस दोहे में कहते हैं हे कान्हा, तुम्हारें हाथ में मुरली हो, सर पर मोर मुकुट हो तुम्हारें गले में माला हो और तुम पीली धोती पहने रहो इसी रूप में तुम हमेशा मेरे मन में बसते हो ।

10.
कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।
भरे भौन मैं करत हैं नैननु हीं सब बात॥
अर्थ :इस दोहे में बिहारी ने दो प्रेमियों के बीच में आँखों ही आँखों में होने वाली बातों को दर्शाया हैं । वो कहते हैं की किस तरह लोगो के भीड़ में होते हुए भी प्रेमी अपनी प्रेमिका को आँखों के जरिये मिलने का संकेत देता हैं । प्रेमिका अस्वीकार कर देती हैं, प्रेमिका के अस्वीकार करने पर प्रेमी मोहित हो जाता हैं ।जिससे प्रेमिका रूठ जाती हैं, बाद में दोनों मिलते हैं और उनके चेहरे खिल उठते हैं । लेकिन ये सारी बातें उनके बीच आँखों से ही होती हैं।
11.
स्वारथु सुकृतु न, श्रमु वृथा,देखि विहंग विचारि।
बाज पराये पानि परि तू पछिनु न मारि।।
अर्थ : हिन्दू राजा जयशाह, शाहजहाँ की ओर से हिन्दू राजाओं से युद्ध किया करते थे, यह बात बिहारी कवि को अच्छी नही लगी तो उन्होंने कहा,-हे बाज़ ! दूसरे व्यक्ति के अहम की तुष्टि के लिए तुम अपने पक्षियों अर्थात हिंदू राजाओं को मत मारो। विचार करो क्योंकि इससे न तो तुम्हारा कोई स्वार्थ सिद्ध होता है, न यह शुभ कार्य है, तुम तो अपना श्रम ही व्यर्थ कर देते हो .
12.
कनक कनक ते सौं गुनी मादकता अधिकाय।
इहिं खाएं बौराय नर, इहिं पाएं बौराय।।

अर्थ : सोने में धतूरे से सौ गुनी मादकता अधिक है। धतूरे को तो खाने के बाद व्यक्ति पगला जाता है । सोने को तो पाते ही व्यक्ति पागल अर्थात अभिमानी हो जाता है।
13.
अंग-अंग नग जगमगत,दीपसिखा सी देह।
दिया बढ़ाए हू रहै, बड़ौ उज्यारौ गेह।।
अर्थ : नायिका का प्रत्येक अंग रत्न की भाँति जगमगा रहा है,उसका तन दीपक की शिखा की भाँति झिलमिलाता है अतः दिया बुझा देने पर भी घर मे उजाला बना रहता है।

14.
कब कौ टेरतु दीन रट, होत न स्याम सहाइ।
तुमहूँ लागी जगत-गुरु, जग नाइक, जग बाइ।।

अर्थ : हे प्रभु ! मैं कितने समय से दीन होकर आपको पुकार रहा हूँ और आप मेरी सहायता नहीं करते। हे जगत के गुरु, जगत के स्वामी ऐसा प्रतीत होता है ,मानो आप को भी संसार की हवा लग गयी है अर्थात आप भी संसार की भांति स्वार्थी हो गए हो ।

15.
या अनुरागी चित्त की,गति समुझे नहिं कोई।
ज्यौं-ज्यौं बूड़े स्याम रंग,त्यौं-त्यौ उज्जलु होइ।।

अर्थ : इस प्रेमी मन की गति को कोई नहीं समझ सकता। जैसे-जैसे यह कृष्ण के रंग में रंगता जाता है,वैसे-वैसे उज्ज्वल होता जाता है अर्थात कृष्ण के प्रेम में रमने के बाद अधिक निर्मल हो जाते हैं।
16.
जसु अपजसु देखत नहीं देखत सांवल गात।
कहा करौं, लालच-भरे चपल नैन चलि जात।।

अर्थ :नायिका अपनी विवशता प्रकट करती हुई कहती है कि मेरे नेत्र यश-अपयश की चिंता किये बिना मात्र साँवले-सलोने कृष्ण को ही निहारते रहते हैं। मैं विवश हो जाती हूँ कि क्या करूं क्योंकि कृष्ण के दर्शनों के लालच से भरे मेरे चंचल नयन बार -बार उनकी ओर चल देते हैं।
17.
मेरी भाव-बाधा हरौ,राधा नागरि सोइ।
जां तन की झांई परै, स्यामु हरित-दुति होइ।।
अर्थ : कवि बिहारी अपने ग्रंथ के सफल समापन के लिए राधा जी की स्तुति करते हुए कहते हैं कि मेरी सांसारिक बाधाएँ वही चतुर राधा दूर करेंगी । जिनके शरीर की छाया पड़ते ही साँवले कृष्ण हरे रंग के प्रकाश वाले हो जाते हैं। अर्थात–मेरे दुखों का हरण वही चतुर राधा करेंगी । जिनकी झलक दिखने मात्र से साँवले कृष्ण हरे अर्थात प्रसन्न जो जाते हैं।
18.
कीनैं हुँ कोटिक जतन अब कहि काढ़े कौनु।
भो मन मोहन-रूपु मिलि पानी मैं कौ लौनु।।
अर्थ : जिस प्रकार पानी मे नमक मिल जाता है,उसी प्रकार मेरे हृदय में कृष्ण का रूप समा गया है। अब कोई कितना ही यत्न कर ले, पर जैसे पानी से नमक को अलग करना असंभव है। वैसे ही मेरे हृदय से कृष्ण का प्रेम मिटाना असम्भव है।
19.
तो पर वारौं उरबसी,सुनि राधिके सुजान।
तू मोहन के उर बसीं, ह्वै उरबसी समान।।
अर्थ : राधा को यूँ प्रतीत हो रहा है कि श्रीकृष्ण किसी अन्य स्त्री के प्रेम में बंध गए हैं। राधा की सखी उन्हें समझाते हुए कहती है -हे राधिका अच्छे से जान लो,कृष्ण तुम पर उर्वशी अप्सरा को भी न्योछावर कर देंगे । क्योंकि तुम कृष्ण के हृदय में उरबसी आभूषण के समान बसी हुई हो।
20.
पत्रा ही तिथि पाइये,वा घर के चहुँ पास।
नित प्रति पुनयौई रहै, आनन-ओप-उजास।।
अर्थ : नायिका की सुंदरता का वर्णन करते हुए बिहारी कहते हैं कि नायिका के घर के चारों ओर पंचांग से ही तिथि ज्ञात की जा सकती है । क्योंकि नायिका के मुख की सुंदरता का प्रकाश वहाँ सदा फैला रहता है । जिससे वहां सदा पूर्णिमा का आभास होता है।
21.
कोऊ कोरिक संग्रहौ, कोऊ लाख हज़ार।
मो संपति जदुपति सदा,विपत्ति-बिदारनहार।।
अर्थ :भक्त श्रीकृष्ण को संबोधित करते हुए कहते हैं कि कोई व्यक्ति करोड़ एकत्र करे या लाख-हज़ार, मेरी दृष्टि में धन का कोई महत्त्व नहीं है। मेरी संपत्ति तो मात्र यादवेन्द्र श्रीकृष्ण हैं । जो सदैव मेरी विपत्तियों को नष्ट कर देते हैं।
22.
कहा कहूँ बाकी दसा,हरि प्राननु के ईस।
विरह-ज्वाल जरिबो लखै,मरिबौ भई असीस।।
अर्थ : नायिका की सखी नायक से कहती है- हे नायिका के प्राणेश्वर ! नायिका की दशा के विषय में तुम्हें क्या बताऊँ,विरह-अग्नि में जलता देखती हूँ तो अनुभव करती हूँ कि इस विरह पीड़ा से तो मर जाना उसके लिए आशीष होगा।
23.
जपमाला,छापें,तिलक सरै न एकौकामु।
मन कांचे नाचै वृथा,सांचे राचै रामु।।
अर्थ :आडंबरों की व्यर्थता सिद्ध करते हुए बिहारी कहते हैं कि नाम जपने की माला से या माथे पर तिलक लगाने से एक भी काम सिद्ध नहीं हो सकता। यदि मन कच्चा है तो वह व्यर्थ ही सांसारिक विषयों में नाचता रहेगा। सच्चा मन ही राम में रम सकता है।
24.
घरु-घरु डोलत दीन ह्वै,जनु-जनु जाचतु जाइ।
दियें लोभ-चसमा चखनु लघु पुनि बड़ौ लखाई।।
अर्थ :लोभी व्यक्ति के व्यवहार का वर्णन करते हुए बिहारी कहते हैं कि लोभी ब्यक्ति दीन-हीन बनकर घर-घर घूमता है और प्रत्येक व्यक्ति से याचना करता रहता है। लोभ का चश्मा आंखों पर लगा लेने के कारण उसे निम्न व्यक्ति भी बड़ा दिखने लगता है अर्थात लालची व्यक्ति विवेकहीन होकर योग्य-अयोग्य व्यक्ति को भी नहीं पहचान पाता।
25.
मैं समुझयौ निरधार,यह जगु काँचो कांच सौ।
एकै रूपु अपर, प्रतिबिम्बित लखियतु जहाँ।।
अर्थ :बिहारी कवि कहते हैं कि इस सत्य को मैंने जान लिया है कि यह संसार निराधार है। यह काँच के समान कच्चा है अर्थात मिथ्या है। कृष्ण का सौन्दर्य अपार है जो सम्पूर्ण संसार मे प्रतिबिम्बित हो रहा है ।

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9 thoughts on “Bihari Ke Dohe In Hindi : बिहारी लाल के प्रसिद्ध दोहें अर्थसहित :

  • March 2, 2018 at 7:01 pm
    Permalink

    वे न इहा नागर, बढ़ी जिन आदर तो आब|
    फूल्यो अनफूल्यो भयो गवई -गाँव, गुलाब|
    Sir isse explain krke btana plz in hindi

    Reply
    • March 3, 2018 at 10:22 pm
      Permalink

      प्रिया जी ,
      इसका अर्थ इसप्रकार से है :
      यहाँ दिहात में वे रसिक नही है । जो तेरी शोभा और सम्मान को बढ़ाये । ऐ गुलाब, इस ठेठ दिहात में फूल कर भी तुम बिना खिले हुए हो । तुम्हारा फलना फूलना न के बराबर है । तुम्हारी कद्र करने वाला यहाँ कोई नही है ।

      Reply
  • May 8, 2018 at 10:10 pm
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    कृपया निम्नलिखित दोहे का भी अर्थ समझाये:

    सोनजुही सी जगमगी, अँग-अँग जोवनु जोति।
    सुरँग कुसुंभी चूनरी, दुरँगु देहदुति होति॥

    Reply
    • June 3, 2018 at 5:01 pm
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      सोनजुही = पीली चमेली । जोबन = जवानी। सुरँग = लाल। कसूँभी = कुसुम रंग की, लाल। देह-दुति = शरीर की कान्ति।
      अनु जी इसका अर्थ इसप्रकार है :
      सोनजुही के समान उसके अंग-अंग में जवानी की ज्योति जगमगा रही है। (उस पर) कुसुम में रँगी हुई लाल साड़ी पहनने पर शरीर की कान्ति दो रंग की हो जाती है-लाल और पीले के संयोग से अजीब दुरंगा (नारंगी) रंग उत्पन्न होता है। अर्थात वेश-भूषा और आपकी कांति आपकी सुंदरता को और अधिक बढ़ा रहे है ।

      Reply
  • December 16, 2019 at 9:10 pm
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    मन प्रसन्न हुआ

    अच्छा लगा
    आपका बहुत धन्यवाद जी

    Reply
  • December 26, 2019 at 1:51 pm
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    Neeraj ji apki baten toh Bihari se v jyada rasili h… Super

    Reply

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