Kumbh mela in Hindi : कुंभ मेला और उसका महत्व : Importance of kumbh Mela.
कुंभ मेला आस्था,सौहार्द और संस्कृतियों के मिलन का पर्व है । यह सामाजिक समरसता और एकता का संदेश लेकर आता है । अतः इसे भारतीय संस्कृति का महापर्व भी कहा जाता है ।
कुम्भ का अर्थ :
कुंभ का शाब्दिक अर्थ है कलश या घड़ा । इस पर्व का सम्बंध समुंद्रमंथन के दौरान अंत मे निकले अमृत कलश से जुड़ा है ।
कुम्भ का पौराणिक ,ज्योतिष और वैज्ञानिक महत्व भी है :
पौराणिक कथा :
सर्वाधिक मान्य कथा देवताओ और दानवों द्वारा समुंद्र मंथन से प्राप्त अमृत बूंदे गिरने को लेकर है । महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण जब इंद्र और अन्य देवता कमजोर हो गए तो दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया । तब सब देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास गए । विष्णु जी ने देवताओं को दैत्यों के साथ संधि करके उन्हें समुंद्र मंथन करके अमृत निकालने की सलाह दी । देवताओं ने दैत्यों के साथ संधि करके उन्हें समुंद्रमंथन के लिए तैयार किया । अमृत कुंभ के निकलते ही देंवताओ के इशारे पर इंद्रपुत्र जयंत अमृत कलश को लेकर आकाश में उड़ गए । दैत्य पुत्र शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को वापस पाने के लिए जयंत का पीछा किया । उनको रास्ते मे पकड़ा । इस प्रकार दैत्यों में और दानवों में अमृत को लेकर लड़ाई हुई । युद्ध के उपरांत चंद्रमा सूर्य गुरु और शनि ने अमृत कलश की दानवो से रक्षा की । इसके बाद विष्णु भगवान ने मोहनी रूप धारण करके देवता और दैत्यों को अमृत बाँट कर युद्ध को समाप्त किया ।
इसी युद्ध में अमृत की कुछ बूंदें चार स्थानों पर गिरी। ये चार स्थान हरिद्वार,प्रयागराज,उज्जैन और नासिक है । यह युद्ध बारह दिन तक चलता रहा । देंवताओ के 12 दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के समान माना गया ।
जिस समय चंद्रमा ने कलश की रक्षा की उस समय वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र सूर्य ग्रह जब आते है । उस समय कुंभ का योग बनता है । जिस वर्ष जिस राशि पर सूर्य चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है । उसी वर्ष उसी राशि के योग में जहां जहां अमृत बूंदे गिरी थी । वहाँ वहाँ कुम्भ पर्व मनाया जाता है । बारह वर्ष के बाद कुंभ मेला बारी बारी से चारों स्थानों लगता है । जिसे महाकुंभ कहते है ।
चार क्षेत्रों में कुंभ :
हरिद्वार :
हिमालय पर्वत श्रृंखला के शिवालिक पर्वत के नीचे स्थित हरिद्वार गंगाद्वार और मोक्ष द्वार के नाम से जाना जाता है । जब सूर्य मेष राशि मे प्रवेश करता है और बृहस्पति कुम्भ राशि मे प्रवेश करता है ।गंगा नदी के तट पर कुम्भ का आयोजन होता है ।
नासिक :
भारत मे 12 द्वारो में से एक ज्योतिलिंग त्रियंबकेश्वर नामक पवित्र शहर में स्थित है । गोदावरी नदी का उद्गम स्थल भी यही हुआ । 12 वर्षों में एक बार सिंहस्थ कुंभ मेला नासिक में मनया जाता है ।
उज्जैन :
मध्यप्रदेश की पूर्वी सीमा पर स्थित यह शिप्रा नदी के तट पर स्थित है । ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शून्य अंश उज्जैन से शुरू होता है ।शिव महाकालेश्वर का मंदिर भी यही स्थित है ।जब सूर्य और बृहस्पति वृश्चिक राशि मे प्रवेश करते है तो शिप्रा नदी के तट पर कुम्भ का आयोजन होता है ।
प्रयागराज :
त्रिवेणी संगम को पृथ्वी का केंद्र माना गया है । प्रयागराज को तीर्थो का तीर्थ माना जाता है ।मत्स्यपुराण में मार्कण्डेय जी युधिष्टर से कहते है कि ‘यह स्थान समस्त देवताओं से रक्षित है । यहां एक मास तक प्रवास करने ,पूर्ण परहेज रखने ,अखंड ब्रह्मचर्य धारण करने से देवताओं और पितरों को तर्पण करने से समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती है ।यहां स्नान करने वाला व्यक्ति 10 पीढ़ियों को पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो जाता है और मोक्ष को प्राप्त हो जाता है ।’
इसमे सूर्य वृषभ राशि और वृहस्पति मकर राशि मे प्रवेश करता है । प्रयाग में दो कुम्भ मेले के बीच मे छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ का भी आयोजन होता है ।यह पर्व 14 जनवरी से 4 मार्च तक चलता है । चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपनी पुस्तक में कुम्भ मेले का उल्लेख किया है। उनके अनुसार 600 इसवी में सम्राट हर्षवर्धन प्रयाग के कुम्भ मेले का आयोजन में सम्मलित होकर दान पुण्य करने का उल्लेख मिलता है।
कुम्भ मेले की महत्वपूर्ण तिथियां :
मकर संक्रांति : जनवरी के महीने में प्रायः14 और 15 तारीख को जब सूर्य धनु राशि से दक्षिणायन मकर राशि मे प्रवेश कर उत्तरायण होता है तो मकर संक्रांति मनाई जाती है । इसमें लोग व्रत ,स्नान ,पूजा के बाद दान पुण्य करते है । कुम्भ की शुरुआत तथा शाही स्नान इसी दिन प्रारम्भ कोटा है । खरमास के बाद इस दिन अच्छे दिन की शुरुआत होती है । इसे खिचड़ी भी कहा जाता है । इस दिन खिचड़ी खाने का चलन भी है
लोग पतंग भी उड़ाते है ।
पौष पूर्णिमा :
शुक्ल पक्ष की 15 वी तिथि पूर्णिमा को ही पूर्ण चंद्रग्रहण को द्वितीय शाही स्नान किया जाता है । यह 21 जनवरी को मनाया जाता है ।
मौनी अमावस्या :
4 फरवरी सोमवार और अमावस का योग श्रेष्ठ होता है । इस समय किये गए श्राध्द और स्नान शुभ माने जाते है । प्रथम तीर्थंकर ऋषभ देव ने इसी दिन अपना ऑन व्रत तोड़ा था ।
बसंत पंचमी (10 फरवरी)
विद्या की देवी का अवतरण इसी दिन हुआ था । अंतिम शाही स्नान इसी दिन होता है । इस दिन कल्पवासी और तीर्थ यात्री श्वेतवस्त्र की जगह पीले वस्त्र धारण करते है । ऋतु परिवर्तन के कारण दृश्य बहुत ही मनोहारी हो जाता है ।
माघी पूर्णिमा :
19 फरवरी माघ मास की पूर्णिमा देंवताओ के गुरु बृहस्पति का आवाहन का पर्व है ।इस दिन देव लोक के देव गांधर्व और देवता पृथ्वी पर आते है ताकि मनुष्य सशरीर स्वर्ग की यात्रा कर पाता है ।
महाशिवरात्रि :
4 मार्च कुंभ मेला का यह आखिरी स्नान होता है । भगवान शिव और माँ पार्वती के इस पावन पर्व में सभी भक्तगण संगम में डुबकी लगाते है ।इस दिन सभी भक्तगण और कल्पवासी अंतिम स्नान के बाद अपने घरों को लौटते है । मान्यता है कि देवलोक भी इस अवसर का इंतजार करते है ।
कुंभ पर्व में मेला क्षेत्र पूरे शहर में तब्दील हो जाता है । इससे हमारे कर्मकाण्ड ,योग और आध्यात्मिकता की अनुभूति होती है । अखाड़ों के शाही अखाड़े से लेकर संत पंडालो में धार्मिक मंत्रोच्चारण ,ऋषियोँ द्वारा सत्य ज्ञान और तत्वमीमांसा विवेचन ,मुग्धकारी संगीत , नादों का समावेद ,अनहद नाद और और संगम में स्नान से मन की पवित्रता के साथ अनेक देवताओं के दिव्य दर्शन कुम्भ की यही महिमा भक्तों के मन को आकर्षित करती है ।