Suryakant Tripathi ‘Nirala’ in Hindi : सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’


सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला ‘ (Suryakant Tripathi Nirala) छायावाद युग के चार स्तम्भकारो में से एक है। वे प्रख्यात कवि ,उपन्यासकार ,कहानीकार और निबंधकार थे।  उनकी रचनाये लीक से हटकर ह्रदय में नई चेतना का संचार करती है। उन्होंने अपने काव्य में मुक्त छंदो का प्रयोग करके हिंदी साहित्य को नई ऊर्जा दी ।



सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला ‘ का प्रारंभिक जीवन :


निराला जी का जन्म 21 फरवरी 1896 को बंगाल के महिषादल रियासद (मेदिनीपुर) मे हुआ था । उनका जन्म बसंत पंचमी ,मंगलवार को हुआ था। अतः जन्मकुंडली  के हिसाब से पंडित जी ने  उनका नाम सुर्जकुमार रखा । इस नाम को बाद ने निराला जी ने सूर्यकांत ‘निराला। कर दिया। निराला जी के पिता  पं राम सहाय तिवारी उन्नाव बैसलवाड़ा जिले के रहने वाले थे। वे महिषादल में सिपाही थे।

निराला  जब तीन वर्ष के थे,  उनकी माँ का निधन हो  गया था। उनके पिता ने ही उनका पालनपोषण किया। जब वे २० वर्ष के थे इनके पिता का देहांत हो गया।  निराला जी ने हाईस्कूल की परीक्षा बंगाल से की।   इसके बाद उन्होंने घर पर ही संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन  किया। हाईस्कूल करने के बाद वे लखनऊ और बाद मे  उन्नाव जिले के गढ़कोला आ गए। वे रामकृष्ण परमहंस ,विवेकानंद और रवीन्द्रनाथ टैगोर से प्रभावित थे। उनकी रूचि खेलकूद ,कुश्ती और संगीत में ज्यादा थी ।अध्ययन में उनका मन नहीं लगता था। 



वैवाहिक जीवन :


15 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह रायबरेली जिले के डलमऊ गांव में  पंडित राम दयाल की पुत्री मनोहारा देवी से हुआ। मनोहर देवी शिक्षित और सुन्दर थी।  उनको  संगीत में काफी रूचि थी।  वे बहुत अच्छा गाती  थी। उनको  हिंदी साहित्य का भी अच्छा ज्ञान था।  निराला जी को हिंदी  में लिखने के लिए उनकी पत्नी मनोहारा ने ही प्रोत्साहित किया। वे बंगाली से हिंदी में लिखने लगे और आगे चलकर वे एक अजेय रचनाकार बने । संगीत के भी अच्छे जानकार थे उनकी कविता में संगीत का  अच्छा तालमेल दिखाई पड़ता है ,पत्नी का साथ उन्हें ज्यादा नहीं मिल सका ।

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद फैली महामारी में 1919 में उनकी पत्नी ,चाचा ,भाई और भाभी का निधन हो गया। निराला जी के ऊपर जैसे दुखो का पहाड़ टूट पड़ा । उनकी आर्थिक दशा भी अच्छी नहीं थी । एक पुत्र और एक पुत्री के साथ परिवार की जिम्मेदारी उनके ऊपर आ गयी।  उन्होंने प्रकाशको के यहां प्रूफ रीडिंग का कार्य किया।  इन्ही संघर्षो के बीच निराला व्यक्तित्व और कृतित्व उभर कर सामने आया । उनकी ओज पूर्ण कविता और विचारो की गहराई  उनकी रचना में स्पष्ट देखा  जा सकता  है ।

कार्य क्षेत्र :


निराला  जी 1918 से 1922 तक महिषादल  में नौकरी  की। इसके बाद उन्होंने संपादन और स्वतंत्रलेखन  का कार्य  किया ।1922 से 1923  के दौरान वे कोलकाता से ‘समन्वय’ का सम्पादन किया। 1923  में ‘गंगा पुस्तक माला’ लखनऊ में उनकी नियुक्ति  हो गयी।  इस संस्था की मासिक पत्रिका  ‘सुधा’ में  1923 से 1935 तक जुड़े रहे। अपने जीवन के उत्तरार्ध  में,  वे 1942 में  इलाहाबाद के दारागंज मोहल्ले  में आ गए थे। 

यहां पर स्वतंत्र लेखन और अनुवाद का कार्य किया। महादेवी वर्मा और सुमित्रानंदन पंथ से अच्छी मित्रता थी। महादेवी वर्मा तो उनको अपना भाई मानती  थी। वे अपना सुख दुःख उनसे  शेयर करते थे ।  उनसे किसी का कष्ट देखा नहीं जाता था। अक्सर वे किसी गरीब या जरुरत मंद को मदद कर दिया करते थे। यही कारण है कि  उनके पास खुद के लिए पैसे नहीं होते। भले ही जीवन में उनको कितना ही कष्ट क्यों न हो लेकिन दूसरो की मदद के लिए वे हमेशा तैयार  रहते थे। 
अपने सहयोगी और वरिष्ठ लेखकों का बहुत सम्मान करते थे। एक समारोह में निबंधकार आचार्य रामचंद्र  शुक्ल को मंच के नीचे बैठा देखकर वे क्रोधित हो गए। उन्होंने आर्गेनाइजर  को कड़ी फटकार लगाई कि वरिष्ठ लेखक का सम्मान न होना हिंदी साहित्य का अपमान है। उन्होंने सम्मान से आचार्य  रामचंद्र शुक्ल को मंच पर बैठाया । 

निराला और सरोज स्मृति


जीवन में दैवी विपदाओं ,सामाजिक और साहित्यिक संघर्षो  के बीच उनकी रचनाओं के विविध आयाम देखने को मिलते है। अपनी पुत्री की असमय 18  वर्ष (1935)  मृत्यु के पश्चात उसकी याद में  ‘सरोज स्मृति’ की रचना की । इसे  निराला का शोकगीत भी कहा  जाता है।

‘दुःख ही जीवन की कथा रही 
क्या कहूँ आप, जो नहीं कही 
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म,रहे नत सदा साथ
इस पथ पर मेरे कार्य सफल 

हो भ्रष्ट शीत के-से शतदल !
कन्ये, गत कर्मो का अर्पण 
कर करता मै तेरा तर्पण। ‘


 निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’ :

‘राम की शक्तिपूजा’ साहित्य की  अमूल्य धरोहर है। इसका प्रकाशन 26 अक्टूबर  1936 में ‘भारत’ पत्र में  हुआ। यह 312 पक्तियों की  एक लोकप्रिय लम्बी कविता है। इस कविता का कथानक प्राचीन काल से सर्वविख्यात राम कथा अंश से है। इसमें  तुलसी की ‘ राम चरित मानस’ और वाल्मीकि की ‘रामायण’ से  ज्यादा  कृतिवास की ‘बांग्ला  रामायण’  का प्रभाव है।

इस कविता में एक ओर यथार्थ से जूझते हुए मानव का अंतर्द्वंद है तो दूसरी ओर  एक सांस्कृतिक सामाजिक प्रक्रिया है। एक पौराणिक प्रसंग  के माध्यम से यह कविता अपने युग को उजागर करती है ।  भारत माता  की आजादी को निराला जी ने सीता की मुक्ति से जोड़ा । अंग्रेजी शासन के खिलाफ लड़ने वाले स्वतन्त्रता सेनानियों के मन में संशय उत्पन्न हो गया था कि पता नहीं आजादी मिलेगी  या नहीं । क्योकि अंग्रेजो ने स्वतन्त्रता आंदोलन को एक तरह से दबा दिया था। 

जब भगवान् राम और रावण का युद्ध होता है तो उन्होंने देखा की दुर्गा शक्ति रावण की ओर है। यह देखकर  राम दुखी हो जाते है। उनके अंतर्द्वंद चलने लगता है। 

‘है अमानिशा उगलता गगन घन अंधकार 
खो रहा दिशा का ज्ञान ,स्तब्ध है पवन चार। ‘

‘ऐसे में जामवंत श्री राम को परामर्श  देते है कि जिसप्रकार रावण ने शक्ति की आराधना की थी, उसीप्रकार आप भी शक्ति की आराधना कीजिये और शक्ति को प्राप्त करे। तब भगवान् राम शक्ति की आराधना करते है। आखिरी ‘कमल’ अर्पित करने से पहले ही वह दुर्गा जी द्वारा लोप हो जाता है। तभी श्री राम को याद आता है कि उनकी माता उन्हें अपने नैन को कमल बताती थी, तो उन्होंने अपने बाण से जैसे ही अपने नैन को दुर्गा जी पर अर्पण करने के लिए  हाथ बढ़ाया। मां भगवती  प्रकट हो जाती है। 

‘यह है उपाय कह उठे राम जो मन्द्रित धन
कहती थी माता मुझे सदा राजीव-नयन
दो नील कमल है शेष अभी यह पुरश्चरण 
पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयना !


माँ शक्ति के श्री राम के  विजय के आवाहन के साथ ही कविता का समापन होता है। 
‘होगी जय होगी जय ,हे पुरुषोत्तम  नवीन !कह महाशक्ति राम के बदन में हुयी लीन। ‘
इस प्रकार कहा  जा सकता है की यह कविता निराला जी की शक्ति की मौलिक कल्पना है। इसमें पौराणिक श्री राम के मानवी रूप को रेखाँकित किया गया है। इसमें धर्म और अधर्म के बीच का संघर्ष चलता है। इसमें विजय धर्म की होती है। 

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निराला का साहित्यिक सृजन :


निराला  जी ने  प्रारंभ ‘जन्म भूमि की वंदना’ से किया था । उनकी पहली कविता वर्ष 1916  में ‘जूही की कली’ को माना जाता है. निराला जी की कविता में कल्पना कम और यथार्थ  ज्यादा दृष्टिगत होता है। निराला काव्य क्षेत्र  में मुक्त छंद के प्रणेता के रूप में जाने जाते है।  उनके अनुसार ,’मनुष्यो की मुक्ति की तरह कविता की मुक्ति भी होती हैं। मनुष्यो की मुक्ति कर्म के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छंदो के शासन से अलग हो जाना है।’ ‘निराला जी के साहित्य में एक तरफ तो श्रृंगार, रहस्यवाद ,प्रकृति वर्णन तथ्य देखने को मिलते है तो  दूसरी ओर  शोषण ,वर्ग भेद ,पाखंड के प्रति व्यंग्य आदि शामिल है। इसके साथ ही चित्रणकौशल भी गजब का है ।


  काव्य में संगीतात्मकता :  

 उनके काव्य में संगीतात्मकता भी देखी जा सकती है । ‘टूटे सकल बन्द , टूटे सकलबन्द करके दिशा ज्ञान ‘ राग शंकरा ‘में बहुत खूबसूरत गायन लगते है। ‘वर दे वीणा वादिनी ‘नई गति ताल से मन मोह लेता है।  ‘गीतिका काव्य संग्रह ‘ में निराला जी ने गीत के द्वारा अपनी भावनाओ को स्वरों में प्रस्तुत किया है। 

 भाषाशैली  :

निराला  जी  भाषा शैली एक तरफ उत्कृष्ट छायावादी गीतों में प्रयुक्त लम्बी समस्त पदावली युक्त तत्सम  गहन विचारो से ओत -प्रोत शैली  जैसे  ‘राम की शक्ति पूजा’ और ‘तुलसीदास’  तो  दूसरी  ओर सरल प्रवाहपूर्ण प्रचलित उर्दू व्यंग्यपूर्ण चुटीली शैली है जैसे ‘कुकुरमुत्ता’ और ‘रानी और कानी’  है । उनकी भाषा में मुख्यतः परमार्जित खड़ी बोली का  प्रयोग मिलता है। भाषा पर उनको पूर्ण अधिकार था। एक ओर उनकी कविता में तत्सम शब्द मिलते है तो दूसरे और देशज और तत्भव का प्रयोग भी मिलता है। नवीन शब्दों और अंग्रेजी शब्दों  का  भी  प्रयोग मिलता  है। उनकी कविता मे  तत्सम शब्दावली की एक झलक प्रस्तुत है :

‘विजन -वन-वल्लरी पर 
सोती थी सुहाग -भरी -स्नेहा सपना मग्न 
अमल -कोमल-तनु तरुणी -जुही  की कली ‘

अलंकार : निराला जी की रचना में उपमा,रूपक ,उत्प्रेक्षा अलंकार ,अतिशयोक्ति ,मानवीकरण, ध्वन्यात्मकता  तथा विशेषण विपर्यय आदि अलंकार  स्पष्ट  देखे जा सकते है

प्रमुख कृतियाँ :

  • काव्य संग्रह : अनामिका (1923 ),परिमल (1930 ),गीतिका (1936 ),
  • तुलसीदास (1939 ),कुकुरमुत्ता (1942 ),अणिमा(1943)  ,बेला (1946), नये पत्ते (1946) ,अर्चना (1950), आराधना (1953) ,गीतकुंज 1954 ,साध्य काकली  मरणोपरांत  (1969 )
  • उपन्यास : अलका (1931) ,प्रभावती (1933) ,निरुपमा (1936) , कुल्लीभाट (1939), बिल्लेसुर बकरिहा (1942),चोटी  की पकड़ (1946 ). 
  • कहानी संग्रह : लिली 1934 ,सखी 1935 ,सुकुल की बीबी (1935),चतुरी चमार (1945),
  • निबंध आलोचक : रविन्द्र  कविता कानन 1929 , प्रबंध पद्य 1934 ,प्रबंध प्रतिभा 1940 चाबुक 1942 चयन 1957 संग्रह 1963 बालोपयोगी साहित्य :भक्त ध्रुव (1926) ,भक्त प्रहलाद (1926) भीष्म (1926) महाराणाप्रताप 1927 ,सीख भरी कहानियाँ (नीति कथायें )(1969 ). 
  • महापुराण : महाभारत 1939 ,रामायण की अंतर्कथाएं (1956 )
  • अनुवाद : राम चरित मानस विनयभाग (1948),आनंदमठ बांग्ला से गद्यानुवाद ,विषवृक्ष ,कृष्णकांत का वसीयतनामा ,कपालकुंडला ,दुगेशनन्दनी ,राजसिंह ,राजरानी ,देवी चौधरानी ,  युन्गलांगुलीय ,चंद्रशेखर ,रजनी ,श्रीरामकृष्ण वचनामृत (तीन खंड ),भारत में विवेकानंद।
  •  रचनावली : निराला रचनावली नाम से 8 खंडो में पूर्व प्रकाशित एवं अप्रकाशित सम्पूर्ण रचनाओं का सुनियोजित प्रकाशन (प्रथम संस्करण -1983 )

  15 अक्तूबर 1961 को इलाहाबाद में उनका देहांत हो गया। निराला जी के बारे में कहा  जा सकता है कि कष्ट , वियोग और विषम परिस्थितियों में भी उन्होंने साहित्य जगत को अमृत ही दिया । राम विलास शर्मा की किताब ‘निराला की साहित्य साधना ‘(भाग -1)  में निराला के कष्टों से भरे जीवन के चित्र खींचते दिखायी  देते है।  डॉ नामवर सिंह ने निराला की कविता को ‘शताब्दी का काव्य’ कहा  है। 

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