Kabirdas|कबीरदास का जीवन-परिचय | Kabirdas Biography


कबीरदास जी भक्तिकाल के ज्ञानाश्रयी शाखा के महान संत ,समाजसुधारक और कवि है। उन्होंने अपने पूरे जीवनकाल में समाज में व्याप्त बुराइयों और वाह्य आडम्बर को दूर करने का प्रयास किया। समाज को जाग्रत करने का कार्य किया। उन्होंने हिन्दू और मुसलमानो की एकता पर जोर दिया। ईश्वर के निराकार स्वरूप को कबीरदास जी ने  अपने ज्ञान का आधार बनाया। उनके अनुसार,  ‘योग साधना द्वारा परम आनंद को प्राप्त किया जा सकता है।’


जन्म और स्थान  :


 कबीर के जन्म  के विषय में अनेक  किवदंतियां  है। कबीर पन्थियो के अनुसार कबीर का जन्म संवत 1455 (1440 ईसवी ) काशी  के लहरतारा तालाब में कमल के फूल के ऊपर बालक के रूप में हुआ था।

‘चौदह सौ पचपन साल गए ,चंद्रवार एक ठाठ ठए.
जेठ सुदि बरसायत को पूरनमासी तिथि प्रकट भये।
घन  गरजे दामिनी दमके बूंदे बरसे जहर लाग गए।
लहर तलाब में कमल खिले तहँ कबीर भानु प्रकट भये। .’


इसके अलावा मान्यता है कि  एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न बालक को लोकलाज के भय  से लहरतालाब में उसे छोड़ आयी।  इस बालक को नीरू और नीमा नामक जुलाहे दम्पति अपने घर ले आये । उन्होंने ही इस बालक का नाम कबीर रखा और पालन पोषण किया।
कबीर का बचपन अन्य बालको से भिन्न था। उनकी खेल  में भी रूचि नहीं थी। कबीर के पिता की आर्थिक दशा ठीक नहीं थी। अतः वे पढ़ने नहीं जा सके । किताबी शिक्षा से वे दूर रहे।  उनका कहना है कि  ‘मसि कागद छुवो नहीं ,कलम गहि नहीं हाथ। ‘ कबीरदास जी ने कोई भी रचना लिखी नहीं है। उन्होंने जो बोला  है।  प्रवचन के तौर पर  वही  उनके शिष्यों ने लिख दिया ।

वैवाहिक जीवन :


कबीरदास जी का विवाह  वनखेड़ी बैरागी की पलीता कन्या लोई के साथ हुआ था। कबीर के दो संतानें थी। पुत्र का नाम  कमाल  और पुत्री का नाम कमली था। ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी पत्नी, पुत्र और पत्नी बाद में उनके शिष्य हो गए हो। एक जगह उन्होंने स्पष्ट कहा  है कि
नारी तो हम भी करी ,पाया नहीं विचार।
जब जानी तब  हरिपरि ,नारी महाविकार।।’

कबीर की गुरु दीक्षा  :

काशी में ‘रामानंद’ नाम के उच्चकोटि के संत और गुरु माने  जाते थे। कबीरदास जी उनको अपना गुरु बनाना चाहते थे। उस समय  जाति व्यवस्था के कारण रामानंद के शिष्यों  ने कबीर दास को मिलने नहीं दिया। क्योकि कबीर  जुलाहे के पुत्र थे। कबीरदास जी को यह मालूम था कि रामानंद जी प्रातः काल गंगा जी में स्नान करने आते है। अतः  कबीरदास जी पहले से ही गंगा नदी की  सीढ़ियों में लेट गए।  सुबह हल्के अंधेरे  में रामानंद जी का  पैर  कबीर दास जी के शरीर से टकराया तो  वे ‘राम -राम’ कहते हुए पीछे हटे ! कबीर दास जी ने उनके ‘राम नाम’ के मन्त्र को आत्मसात कर लिया और उनको अपना गुरु मान लिया। इस प्रकार गुरु रामानंद भी इंकार नहीं कर पाए। रामानंद जी ने कबीर को अपना शिष्य बना लिया।
कबीर में स्वीकार भी किया है कि ‘हम कासी में प्रकट भये है ,रामानंद चेताये। ‘
कबीर के घर में  साधु और संतो का हमेशा जमावड़ा लगा रहता था। हमेशा सत्संग चलता रहता था. जुलाहा ही तो थे ज्यादा आमदनी थी नहीं फिर भी,  वे सभी  को भोजन कराते  थे। उनके यहां ज्ञानरूपी गंगा बहती थी। जिसमे अधिकतर लोग  डुबकी  लगाया करते थे। उन्होंने अपनी वाणी के माध्यम से समाज को जाग्रत किया। जन सामान्य को प्रेम का पाठ पढ़ाया .
‘पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भय न कोउ .
ढाई आखर  प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय ‘

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 कबीरदास का साहित्यिक परिचय :

कबीर एक युग प्रवर्तक के रूप में जाने जाते है। कबीर की रचनाओं का संकलन ‘बीजक’  के नाम से विख्यात हुआ है। ‘कबीर ग्रंथावली’ बाबू श्याम सुन्दर दास द्रारा पदों को संगृहीत किया गया है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कबीरदास जी की भाषा को ‘पंचमेल खिचड़ी’ बताया। उनकी भाषा को सधुक्कड़ी भाषा के रूप में भी  जाना जाता है। इनकी रचनाओं में  ब्रजभाषा ,पंजाबी ,बुंदेलखंडी ,राजस्थानी ,पंजाबी, पूर्वी अवधी अरबी, फारसी और खड़ी  बोली  का उल्लेख मिलता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने संत कबीर दास की भाषा को ‘वाणी का डिक्टेटर’ मानते है। कबीरदास की अन्य  रचनाओं में सुखनिधन ,होली ,अगम ,शब्द ,बसंत ,रक्त भी शामिल है।

कबीर दास जी के शिष्य धर्मदास जी ने  की रचनाओं को तीन वर्गों में विभाजित किया गया।
साखी : इसमें कबीरदास की शिक्षाओं और सिद्वांतो का उल्लेख है। इसमें गुरु वचन ,व्यावहारिक ज्ञान  का उल्लेख मिलता है।  इसके साथ ही कर्मकांड , मूर्तिपूजा ,पाखंडवाद के विरोधी स्वर भी मुखरित होते है।  सखियों में दोहों  का उल्लेख मिलता है। कही  कही  पर सोरठा का प्रयोग  भी मिलता है।

रमैनी : रमैनी को प्रस्तावना के तौर पर माना जा सकता है।  इसमें 14 लाख योनियों का वर्णन मिलता है।  इसमें मनुष्य मुक्ति कैसे पाए। इसमें रहस्यवाद  और दार्शनिक विचारो का उल्लेख मिलता है।  अपनी रचनाओं में चौपाई छंद का प्रयोग मिलता है।

सबद : यह गेय पदों ने है। इसमें भावावेश की प्रधानता है। इसमें कबीर दास जी के प्रेम और अंतरंग  साधना का प्रयोग मिलता है।

 कबीरदास के राम :

 कबीर के राम कण कण में विराजमान है।  वे  निराकार है।  वे सब में व्याप्त है। वे कहते है :
‘व्यापक ब्रह्म सबनिमैं एकै, को पडित को जोगी। रावण राव कवनसूं  कवन वेद को रोगी। ‘

कबीर राम को किसी रूप की कल्पना नहीं करते कबीर राम की व्यापकता स्वरुप देना चाहते है।  कबीर नाम ने विश्वास  रखते है ,लेकिन रूप में नहीं।  कबीर अपने राम को निर्गुण रूप देने के पश्चात भी मानवीय प्रेम सम्बन्धो की बात भी करते है  कभी वे राम को माधुर्य भाव से अपना प्रेमी इसे पति मान लेते है तो कभी उनका पुत्र। निर्गुण  निराकार ब्रह्म के साथ इस तरह  सहज मानवीय प्रेम कबीर  भक्ति की विशेषता है।
‘हरि मोरा पिउ मैं राम की बहुरियाँ  ‘
कबीर के राम दशरथ के राम नहीं है। कबीर के राम साधना के प्रतीक है किसी जाति या सम्प्रदाय के प्रतीक नहीं है। ये तो कण कण में व्याप्त है ,कबीर के राम अलख ,अविनाशी,परमतत्व है।

 कबीरदास की मृत्यु :

यह मान्यता थी कि काशी  में मृत्यु होने पर मनुष्य सीधा स्वर्ग जाता है। संत कबीर दास इस मित और अंधविश्वास  को तोड़ना चाहते थे। अतः अपने  मरने का स्थान उन्होंने ‘मगहर’ चुना ,जो वाराणसी  से लगभग  200  किलोमीटर दूर  स्थित है। माघ शुक्ल एकादश वर्ष 1518  में उनका देहावसान हुआ ।  मगहर में कबीर दास की समाधि और मज़ार दोनों है। कबीर दास की मृत्यु के पश्चात हिन्दू और मुस्लिमो ने उनके शरीर को पाने के लिए अपना अपना दावा  पेश किया। दोनों धर्मो के लोग अपने धर्म और रीतिरिवाज के अनुसार अंतिम संस्कार करना चाहते थे। हिन्दुओ ने कहा कि वे हिन्दू थे ,अतः उनके शरीर को जलाना चाहते थे। जबकि मुस्लिमों ने कहा  कि वे मुस्लिम थे।अतः वे उनको दफनाना चाहते है। जब उन लोगो ने कबीर के शरीर से चादर हटाया तो उन्होंने पाया कि कुछ फूल वहाँ पर पड़े मिले। उन्होंने उन फूलों को आपस में बाँट लिए और अपने अपने रीति रिवाजो से अंतिम संस्कार संपन्न किया।

कहा जा सकता है कि कबीर एक युगद्रष्टा थे। ऐसे  समय  मे जबकि धर्म और सम्प्रदायो के,आपस में संघर्ष चल रहें थे। कर्मकाण्ड और जातिवाद की जड़े मजबूत हो चुकी थी। ऐसे में कबीरदास जी ने हिन्दू और मुसलमानों दोनों को  एक नई राह दिखाई ।अपने योग और साधना के द्वारा उन्होंने  स्वयं में ब्रह्म का साक्षात्कार किया और जनसाधारण को को भी कराया। उनको मोक्ष का मार्ग बताया।
कबीर के जन्म ,स्थान उनकी जाति ,धर्म ,भाषा और मृत्यु आदि पर विवाद हो सकता है। लेकिन उन्होंने मानव मुक्ति का जो मार्ग  बताया उस पर कोई विवाद नहीं है। उन्होंने मानवता का जो सदेश दिया है उस पर कोई संदेह नहीं है।

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