Essay On Holi In Hindi (होली पर निबंध)
बसंत ऋतु की खुमार, उस पर होली का रंग और उसकी बयार, खेतो में सरसों के पुष्प और गेहूं की लहलहाती बालियां किसको आकर्षित नही करते । यह एक ऐसा त्योहार है जिसमें सभी बच्चे और बूढे अपने गिले- शिकवे भूल कर आपस में गले मिलते है । यह बुराई पर अच्छाई की विजय का पर्व है । होली का त्यौहार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है ।
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होली पर कथाये: प्राचीन काल में हिरण्यकश्यप नाम का एक असुर राजा था । वह बहुत ही शक्तिशाली था । उसको शिव जी से वरदान मिला था कि उसकी मृत्यु ना आकाश में हो न पृथ्वी में ,उसको ना मनुष्य मार सकता है और न कोई पशु । वह अपने आप को भगवान समझता था। ईश्वर की पूजा पर उसने पाबन्दी लगा रखी थी। उसका पुत्र प्रह्लाद उसके विपरीत ईश्वर भक्त और विष्णु का उपासक था। हिरण्यकश्यप उसके इस व्यवहार से अत्यन्त क्रोधित था । उसने प्रह्लाद को मारने के अनेक प्रयत्न किये, पर्वत से गिराया, हाथी के पैरो तले छोड़ दिया , यहाँ तक की उसको जहर भी दिया गया लेकिन वह ‘ओम् नमो भगवते वासुदेवायः नमः’ कहते हुए बच जाता । अंत में हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका, जिसको यह वरदान था कि आग में बैठने पर वह नही जलेगी । होलिका ने प्रह्लाद को अपने गोदी में बिठाकर लकड़ियों पर बैठ गयी और जब आग लगाया तो प्रह्लाद ,’नारायन ‘ का नाम लेता हुआ बाहर निकल आया और होलिका उसमे भस्म हो गयी । इसी ख़ुशी में जनता पहले दिन रात्रि को होलिका दहन करते है और उसी अग्नि की पूजा की जाती है । एक दूसरे को अबीर गुलाल लगाते है और दूसरे दिन खुशिया मनाते है ।
दूसरा प्रयोजन मथुरा में ब्रज की होली का है कृष्ण और राधा के प्रेम की कथा का उल्लेख मिलता है जिसमे कृष्ण राधा के प्रेम में ऐसी होरी का रास रचाते है कि पूरा ब्रज और ब्रह्माण्ड उनके रंग में रंग जाता है। यही प्रेम का संदेश उन्होंने विश्व को दिया है।
यह भी उल्लेख मिलता है कि इसी दिन कृष्ण भगवान ने पूतना का वध किया था । उसी खुशी में होली का त्योहार मनाते है।
गंगा पुत्री पार्वती का विवाह भी शिव जी के साथ इसी समय हुआ था उसे भी होली के साथ जोड़कर देखा जाता है। वैदिककाल में इस पर्व की नवात्रष्टि यज्ञ कराया जाता था। उस समय खेत के अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने की परम्परा थी। इस अन्न को होला कहा जाता था। इसी से इस पर्व को होलिकोत्सव के नाम से जाना जाता है।

परम्परा और आधुनिकता का संगम होली : ब्रज की होली आज भी पूरे भारत में आकर्षण का केंद्र माना जाता है । सबसे अधिक बरसाने की लठमार होली होती है । इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते है और महिलाएं लाठियो और कपड़े के कोड़ो से उनको मारती है । हरियाणा में भाभी द्वारा देवर को सताये जाने की प्रथा प्रचलित है । छत्तीसगढ़ में लोकगीत गाने की परंपरा प्रचलित है ।
होली में झंडा या डंडा गाड़कर इसे किसी चौराहे या पार्क के पास महीनों पहले लकड़ियां इक्कट्ठा की जाती है। पहला दिन होलिकादहन होता है। कई जगह गोबर के कंडे की माला बनायी जाती है। पकवान का भोग लगाया जाता है। गेहूं की बालियां ,चने के पत्ते और होरा सभी को अग्नि में समर्पित कर अबीर और गुलाल से पूजा की जाती है। होली का दूसरा दिन धुलंडी कहलाता है। इस दिन सुबह से ही लोग अपने दोस्तों और रिश्तेदारो के यहाँ जाते है और रंग, अबीर- गुलाल से होली खेलते है।
उत्तरभारत में होली टोलियों और समूहों में लोग घरो से बाहर निकलकर एक दूसरे के ऊपर पिचकारी से रंग डालते है । साथ ही बाजे और ढोल के साथ एक मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले डांस करतें हुये खुशियों मनाते है। उस समय का नजारा देखते ही बनता है, प्रेमभाव के रंगो में मस्त एक समानता दिखती है। कुछ लोग मटकी फोड़ने का कार्यक्रम भी करते है। इसमे मटकी को रस्सी से बांधकर ऊपर लटका दिया जाता है। अनेक ग्रुप बन जाते है । जो ग्रुप भी मटकी फोड़ता है ,उनको ईनाम दिया जाता है । दोपहर के बाद रंग छुड़ाने का प्रयास किया जाता है। शाम को नए वस्त्र पहन कर लोग एक-दूसरे से मिलने जाते है । कई संस्था होली- मिलन समारोह का भी आयोजन करवाती है । जिसमे सांस्कृतिक कार्यक्रम के साथ ही साथ खान-पान का प्रबंध भी होता है । इसमें गुझिया और ठंडाई मुख़्य होते है ।
साहित्य में होली : संस्कृत साहित्य में होली के रूपों का विस्तृत विवरण मिलता है । कालिदास की की ‘ऋतु संहार ‘ में वसन्तोत्सव और होली का उत्सव उल्लेख मिलता है । इसीप्रकार चंदवरदायी द्वारा रचित ‘पृथ्वीराज रासो ‘ने होली के विविध रूप दृष्टिगत है।
भक्तिकाल और रीतिकाल हिंदी साहित्य होली के रंग में सरोबोर है। सूरदास, मीरा , रसखान, जायसी, कबीर, बिहारी, घनानंद आदि कवियों ने एक तरफ तो सगुण रूपों में राधा और कृष्ण की होरी उनकी छेड़छाड़, मस्ती में प्रेम को आधार बनाया है तो दूसरी तरफ निर्गुण लौकिक प्रेम को उजागर किया है।
संगीत में होली : शास्त्रीय संगीत में धमार का प्रयोग देखा जा सकता है:
‘आज छबीले मोहन नागर, ब्रज में खेलत होरी । ग्वाल बाल सब संग सखा ,रंग गुलाल की झोरी ।’
ध्रुपद, धमार, ठुमरी, छोटा ख्याल और बड़ा ख्याल में होली के गीतों का सौंदर्य देखते ही बनता है ।
लोकसंगीत में होली का पर्व अपने यौवन की छटा बिखेरतीं नजर आती है : एक तरफ ‘होलिया में उड़ल गुलाल मारो रंग केसरिया’ में थिरकता युवावर्ग तो दूसरी तरफ ‘होरी खेलत रघुवीरा अवध में .. ‘ जैसे गीतों से वातावरण रंगमय हो जाता है ।
भारतीय फिल्मों में भी ‘सिलसिला ‘फ़िल्म का ‘रंग बरसे भीगे चुनरवाली.’..जैसे गीत होली के वातावरण को उत्कर्षता प्रदान करता है ।
इस पर्व में कई लोग कैमिकल वाले रंगो का प्रयोग करते है , ऐसे रंग स्किन को नुकसान पहुँचाती है। कुछ लोग रंग या गुलाल का प्रयोग न करके कीचड़ से होली खेलते है । गुब्बारे मारने से बच्चों को काफी चोट लग जाती है। होली का त्योहार खुशियां बांटने का पर्व है न कि दूसरो को नुकसान पहुँचाने का । अतः chemical Free रंगों का प्रयोग करना चाहिये । आज कल फूलो वाले रंग भी मार्केट में उपलब्ध है । कुछ लोग शराब पीकर हुड़दंग करते है। वे रंग में भंग डालने का प्रयास करते है। ऐसे लोगो को रोकना हमारा कर्तव्य है। कुछ दुकानदार मिलावटी चीजो का इस्तेमाल करते है । अतः हमें खाने पीने की चीजों को खरीदते समय सावधानी बरतनी चाहिये। हमे ऐसा वातावरण बनाना होगा जिसमें अपनी खुशियों के साथ दूसरों की खुशियां भी बनी रहे।
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आपने होली का वर्णन आधुनिक, साहित्य और संगित के माध्यम से जिस प्रकार से प्रस्तुत किया है । वह वाकई काबिले तारीफ है । बहुत बहुत धन्यवाद इस उम्दा लेख के लिए ।
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