Surya Putra Karna in hindi | सूर्यपुत्र कर्ण | Karna Stories
महाभारत में Karna का व्यक्तित्व सबसे ज्यादा आकर्षण और सबको प्रभावित करने वाला था । उनमे बहुमुखी प्रतिभा का समावेश था । इतिहास में उन्हें महान योद्धा ,विद्वान ,अच्छे मित्र और दानवीर कर्ण के नाम से जाना जाता है ।
Karna के जन्म की कहानी :
कर्ण के जन्म के विषय ऐसा कहा जाता है कि महाराजा कुन्तिभोज की पुत्री कुंती के यहां एक बार दुर्वासा ऋषि पधारे । कुंती ने उनकी खूब सेवा की । इससे प्रसन्न होकर दुर्वासा ऋषि ने कुंती को यह वरदान दिया कि वह जिस देवता का स्मरण करेगी । उनसे उसको पुत्र की प्राप्ति होगी । एक दिन उत्सुकता वश कुँआरेपन में ही कुंती ने सूर्य का स्मरण किया । जिससे सूर्य देवता प्रकट हुए । उनकी कृपा से कुंती को एक पुत्र की प्राप्ति हुई । पुत्र का तेज सूर्य के समान ही था । यह पुत्र कवच और कुंडल धारण करके उत्पन्न हुआ। चूंकि कुंती उस समय अविवाहित थी । लोकलाज के भय से उसने पुत्र को एक टोकरी में रखकर गंगा में प्रवाहित कर दिया । गंगा नदी के किनारे हस्तिनापुर के पास अधिरथ नामक सारथी ने टोकरी में एक पुत्र को देखा और उसे अपने निवास स्थान ले गए । इसप्रकार अधिरथ और उसकी पत्नी राधा ने बालक का पालन पोषण किया । इसलिए कर्ण को राधेय या सूतपुत्र भी कहा जाता है ।
बचपन और शिक्षा :
बचपन से ही राधेय वीर और साहसी थे । लेकिन सूतपुत्र होने के कारण उनको वो सब न मिल सका, जिसके वे भागी थे । जाति -व्यवस्था के कारण बहुत सारी चीजों से वे वंचित थे । लेकिन अपने कर्म और साहस से उन्होंने सब कुछ हासिल किया । उन्हें अपने पिता की तरह रथ चलाना पसंद नही था । धनुर्विद्या से वे अत्यधिक प्रभावित थे । उनकी रुचि को देखते हुए । अधिरथ ने राधेय को शस्त्र-शास्त्र विद्या सीखने के लिए आचार्य द्रोणाचार्य के पास ले गए । आचार्य द्रोण ने उन्हें यह कहकर मना कर दिया कि वे सिर्फ क्षत्रिय राजवंशो को ही शिक्षा देते है । Karna सूतपुत्र है । उनके मना करने के पश्चात कर्ण गुरु परशुराम के पास गए । गुरु परशुराम सिर्फ ब्राम्हणो को शिक्षा दिया करते थे । कर्ण खुद को ब्राम्हण बताकर उनसे शस्त्र और शास्त्र की विद्या सीखने लगे । परशुराम ने कर्ण को सभी प्रकार की युद्ध कला से पारंगत कर दिया । धनुर्विद्या में तो उनका कोई सानी नही था । एक दिन परशुराम कर्ण के जंघा में सिर रखकर विश्राम कर रहे थे और उन्हें नीद लग गयी । उसी समय एक बिच्छू कही से आया और कर्ण के दूसरे जांघ में काट कर घाव बना रहा था । कर्ण ने अपने पैर को हिलने नही दिया कही गुरु जी की नींद न टूट जाये । वे बिच्छू के डंक को सहते रहे । जब परशुराम ने खून बहते हुए देखा तो वे समझ गए कि ब्राह्मण में तो इतनी सहनशीलता नही होती । वे कर्ण के झूठ को समझ गए । उन्होंने कर्ण को श्राप दे दिया कि जब भी तुन्हें मेरी विद्या की जरूरत पड़ेगी । तुम वह भूल जाओगे । बाद में परशुराम को ग्लानि हुई और उन्होंने कर्ण को अपना विजयी धनुष दे दिया ।
अंगदेश का राजा :
गुरु द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों की शिक्षा पूरी होने के बाद सभी कुमारों का युद्ध कौशल का आयोजन करवाया । इसमे अर्जुन की धनुर्विद्या सबसे ज्यादा प्रभावी रही। इसी बीच कर्ण का आगमन होता है । उसने अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारा । किन्तु आचार्य कृपाचार्य ने Karna को यह कहते हुए रोक दिया कि वह क्षत्रिय नही है । उससे वंश और साम्राज्य के विषय मे पूछा । ऐसे में कौरव के ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन ने कर्ण को अंगदेश का राजा घोषित कर दिया । कर्ण ने दुर्योधन से पूछा कि इसके बदले में वह क्या चाहता है । तब दुर्योधन ने बताया कि वह उसका मित्र बनना चाहता है । इसके बाद ही कई घटनाएं सामने आई । दुर्योधन और कर्ण के बीच मैत्री भाव । अर्जुन और कर्ण के बीच प्रतिद्वंदिता और कर्ण का पांडवों से दूरी ।
तभी से कर्ण को अंगराज के नाम से भी जाना जाता है । इसके साथ ही कर्ण को अनेक नामों से जाना जाताहै जैसे राधेय,रश्मिरथी,वायुसेना, सू
द्रौपदी स्वयंम्बर :
Karna के पराक्रम से द्रौपदी बहुत प्रभावित थी । वह मन ही मन कर्ण को चाहती भी थी । कर्ण के मन मे द्रौपदी के प्रति चाहत थी । लेकिन द्रौपदी को जब यह पता चला कि वह शूद्र जाति से है तो उसने कर्ण से विवाह करने को मना कर दिया । कर्ण इससे बहुत ज्यादा क्षुब्ध थे ।
Karna का विवाह :
अपने पुत्र को दुखों से घिरा हुआ जानकर उसके पिता अधिरथ ने दुर्योधन के विश्वासपात्र सारथि सत्यसेन की बहन रुषाली से कर्ण का विवाह कराया ।
एक युद्ध के दौरान , Karna ने दूसरा विवाह राजा चित्रवत की दासी पदमावती से किया । इन दो पत्नियों से उन्हें नौ पुत्र हुए । इसमे 8 पुत्र महाभारत के युद्ध मे वीरगति को प्राप्त हुए । एक पुत्र वृशकेतु बचे । जिनको महाभारत के युद्ध के बाद पांडवों ने इंद्रप्रस्थ का राजा बना दिया था ।
दानवीर और उच्च आदर्श :
अंगदेश के शासक बनने के उपरांत उन्होंने यह घोषणा कर दी कि जब वह प्रातः काल सूर्यदेव की पूजा करते है। उस समय ‘जो भी उनसे मांगना चाहे मांग सकता है ।’ देवराज इंद्र और माता कुंती ने इसका लाभ उठाया । महाभारत के युद्ध के समय कर्ण के सेनापति बनने के एक दिन पूर्व इन्द्र ने कर्ण से साधु के भेष में उनका कवच -कुण्डल माँगा । जिसे कर्ण ने बिना किसी संकोच के उन्हें अपने अंग से काटकर दे दिया । इससे इंद्र ने प्रसन्न होकर उन्हें अमोघ अस्त्र प्रदान किया । इसीप्रकार माता कुंती ने उनसे यह वचन माँगा कि युद्ध के दौरान उनके पांचों पुत्र जीवित रहे। उन्होंने सहर्ष ही स्वीकार कर लिया कि अर्जुन के अतिरिक्त वे उनके किसी भी पुत्र का वध नहीं करेंगे ।
कुंती ने कर्ण से कहा की वे नागअस्त्र का प्रयोग केवल एक बार करे। कर्ण ने उनकी यह बात भी मान ली। माँ कुंती ने कर्ण को यह बताया की तुम मे्रे सबसे बड़े पुत्र हो । पांडवो के पक्ष में आ जाओ। लेकिन Karna ने उनसे कहा ,’नही माँ अब बहुत देर हो चुकी है। ‘
इसीप्रकार दुर्योधन से शांतिवार्ता विफल होने के पश्चात कर्ण के पास श्रीकृष्ण जाते है । वह कर्ण की वास्तविक पहचान बताते है कि वह ज्येष्ठ पांडव है। वह पांडव की ओर आने का परामर्श देते है । श्री कृष्ण उन्हें यह विश्वास दिलाते है कि युधिष्ठर उसके लिए राजसिंहासन छोड़ देंगे और वह चक्रवर्ती राजा बनेगे। कर्ण पांडव के पक्ष में युद्ध करने से मना कर देते है। वे दुर्योधन को धोखा नहीं देना चाहते थे। ऐसे में कृष्ण उनसे दुखी हो जाते है साथ ही कर्ण की प्रशंसा भी करते है ।
दोस्ती की मिसाल :
दुर्योधन को उन्होंने अपना मित्र माना था और उसके लिए कर्ण ने मरते दम तक उसका साथ दिया । पांडवो के वनवास के उपरांत दुर्योधन को सबसे बड़ा शासक बनाना चाहता था। उसके लिए उसने कम्बोज,शक,केकय ,आवंतय ,गांधार ,भाद्र ,विगत ,
तेगन ,पांचाल विदेह ,सुहास ,अंग ,गंग ,निषाद,कलिंग ,वत्स ,अशमठ जैसे राज्यों पर विजय प्राप्त की ।
कर्ण ने चित्रांगन की राजकुमारी भानुमती से विवाह कराने में सहयोग किया । दुर्योधन उसे बलपूर्वक उठाकर ले आया । ऐसे में कर्ण ने विरोध करने वाले राजाओ से युद्ध किया और उन्हें परास्त किया । उनमे मुख्य शासक जरासंध ,शिशुपाल और राजा दन्तवक जैसे योद्धा् थे। कर्ण शकुनि द्वारा रचाये लाक्षाग्रह षड़यंत्र के विरोधी थे। इसके लिए दुर्योधन से कई बार वाद विवाद भी हुआ । क्योकि कर्ण दुर्योधन का भला चाहते थे।
महाभारत के युद्ध में पराक्रम और वीरता :
महाभारत के युद्ध में भीम के पुत्र घटोत्कच कोअमोघ अस्त्र के द्वारा उनका संहार किया । माता कुंती को दिए वचन के अनुसार कर्ण ने पांडवो के सभी कुमारों को जीवन दान दिया। वे अर्जुन से युद्ध करना चाहते थे । क्योकि अर्जुन को ही वे अपना मुख्य प्रतिद्वन्दी समझते थे। युद्ध के दौरान कर्ण ने 13 बार अर्जुन के धनुष की प्रत्यन्चा काट थी । श्री कृष्ण ने कई बार अर्जुन को बचा लिया था ।
अर्जुन के तीर से कर्ण का रथ कई गज पीछे चला जाता था जबकि कर्ण के तीर से सिर्फ हथेली भर ही रथ पीछे जाता था। इसके बाद भी श्रीकृष्ण कर्ण की ही प्रशंसा करते है। इसका कारण वे बताते है कि अर्जन के रथ मे मेरा और हनुमान जी का भार है । इसको हिला पाना भी बहुत मुश्किल है। कर्ण ने युद्ध में बड़ी ही कुशलता से युद्ध किया। उसने जब नागास्त्र का प्रयोग किया तो श्री कृष्ण ने रथ को एक ओर झुका दिया ।वह अर्जुन के मुकुट को ले उड़ा । जिससे अर्जुन के प्राण बच गए ।
अंतिम समय :
युद्ध करते हुए एक जगह धरती में कर्ण का रथ कीचड़ मे फंस गया । उस समय परशुराम के शाप के कारण कर्ण ब्रह्मास्त्र चलाना भी भूल गए । वे अर्जुन से रुकने का आवाहन करके रथ का पहिया निकालने नीचे उतरे । कृष्ण को यह अवसर उचित लगा उन्होंने अर्जुन को यह आदेश दिया की कर्ण पर वार करो । इस प्रकार अर्जुन ने Karna को अपने तीर से मार डाला ।
कर्ण की मृत्यु के पश्चात माता कुंती रोते हुए युद्धस्थल पहुँची। पांडव उन्हें देख कर आश्चर्य में पड़ गए। दुश्मन योद्धा कर्ण के वध से माता कुंती इतना विलाप क्यों कर रही है। तब श्री कृष्ण ने पांडवों को Karna के विषय में विस्तार से बताया की वह युधिष्ठर का बड़ा भाई है । कर्ण के वास्तविक पहचान को जान कर पांडवो को बहुत पश्चाताप हुआ। ऐसे त्याग और बलिदानी सूर्य पुत्र कर्ण के चरित्र को सभी पांडव कुमारो ने सराहा।
कर्ण जब मृत्यु शैय्या पर पड़े थे । श्रीकृष्ण ने अर्जुन से ब्राह्मण का वेश धरकर उनसे उनकी दानवीरता की परीक्षा लेने के लिए भिक्षा मांगी । कर्ण उस समय ब्राह्मण से बोले देव इस समय हम आपको क्या दे सकते है । मेरे पास तो कुछ भी नही है मेरे सभी सैनिक मृत्यु के करीब है । ब्राह्मण बोले ‘तो क्या हम खाली हाथ लौट जाए, फिर संसार मे आपकी कीर्ति धूमिल हो जाएगी ।’Karna ने कहा ‘रुकिये ब्राम्हण देव हम धर्म से विमुख होकर नही मरना चाहते ।’ उनके पास ही एक पत्थर पड़ा था । उससे उन्होंने अपने सोने का दांत तोड़ कर ब्राह्मण को अर्पण कर दिए । कृष्ण प्रसन्न होकर अपने वास्तविक वेश में आ गए ।
उन्होंने प्रसन्न होकर Karna को तीन वरदान मांगने को कहा । कर्ण ने पहला वरदान मांगा कि अगले जन्म में उनके वर्ग का कल्याण हो । दूसरा वरदान मांगा की आपके ही राज्य में हमारा जन्म हो । तीसरा वरदान यह मांगा कि हमारा अंतिम संस्कार वह करे जिसने कोई पाप न किया हो । इसलिए श्री कृष्ण ने कर्ण का अंतिम संस्कार अपने हाथों से किया और उन्हें बैकुंठ की प्राप्ति हुई । कर्ण की पत्नी रुषाली उनके साथ सती हो गयी ।
Karna ने विपरीत परिस्थितियों में भी कभी हार नही मानी । निरन्तर संघर्ष करते रहे । अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनी । वे जानते थे कि दुर्योधन का साथ देने पर उन्हें हार मिलेगी । लेकिन दुर्योधन को उन्होंने सच्चा दोस्त स्वीकार किया था । क्योंकि दुर्योधन ने उनका साथ ऐसे समय मे दिया था जब उनको हर तरफ से तिरस्कार मिला था ।
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